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पीली गीली पाती

यूँ हर दिन वही चाल
कहीं चार पहिये की दौड़
कहीं छुक छुक की ढाल
कहीं कदम कदम भाग
वहीँ पेड़ वाला मोची
... वही चाय की स्टाल
वही कदम कदम भेड़चाल

जाने क्यूँ जीने पे पड़ी
पीली गीली पाती पे अटक गए
कुछ कह गयी कुछ ठिठका गयी
भीगी भागी यूँ पडी थी
जैसे हमारी ही बाट जोह रही थी
जैसे रोज जीने बढ़ जाते हैं
हम भी जीने बढ़ चले
और जेहन उसकी रूह भर चले

जाने कैसी सी दीवानी थी
यूँ उड़ कहाँ से आयी थी
बारिश ने बहकाया
या हरियाली ने ललचाया
कैसी सी उम्मीद थी
जो डाली तोड़ तू निकली थी
पाती तू भी अजीब थी!


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