आधी कौड़ी का चाँद दिखा! बीती रात बारह बाद
आधी कौड़ी का चाँद दिखा !
मटमैला होता चांदी के सिक्के सा
रात के काले सागर में सुफेद नाव सा
नीम्बू के पीले फांक सा
...
बीती रात बारह बाद
आधी कौड़ी का चाँद दिखा !
घुप्प अंधियारी
उसपे लटकन तारी
टिके कैसे रहते हो
आधे क्यों भटकते हो
थोडा थोडा मैं बढ़ रहा
अंधियारी को भेद रहा
कुछ दिनों की बात है
पूरी कौड़ी जब बन जाऊं
तब निकाल ले जाना
यह भी अच्छा खेल है
धीरे धीरे पूरे होना
फिर धीरे धीरे गायब होना
तय क्यूँ नहीं कर पाते
टिकना है या जाना
तय जो कर लेता
तो चाँद न होता
दूर खड़ा झूलता न होता
ढूलक ढूलक ज़मीं पे आता
फिर तुमसे मिलता
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